आखिर चांद पर रखा क्या है? जानिए;
पृथ्वी से 3,84,400 किलोमीटर दूर चांद की सतह पर उतरना बेहद कठिन कार्य है और इसके लिए अद्भुत तकनीकी कौशल की आवश्यकता होती है। हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने चंद्रयान-2 को चांद की कक्षा में सफलता के साथ पहुंचाकर नया कीर्तिमान बनाया और फिर धरती से अपने इशारों पर विक्रम लैंडर यान को भी मुख्य यान से निकलकर चांद की सतह तक अवतरण करने का निर्देश दिया।
उनके निर्देश पर विक्रम चांद की सतह की ओर बढ़ चला, लेकिन सतह से ठीक 2.1 किलोमीटर ऊपर पहुंंच जाने के बाद उससे सिगनल मिलना बंद हो गया। न जाने क्या हुआ उसके बाद। हो सकता है, वह कहीं ठीक-ठाक उतर गया हो या कहीं किसी चट्टान से टकरा गया हो। यह केवल संभावना है और अब भी हमारे कान विक्रम के सही-सलामत चांद की सतह पर उतरने की खबर सुनने के लिए बेताब हैं।
चांद पर पहुंचने की यह चाहत आखिर शुरू कब हुई? चांद तो पहले सिर्फ चांद था- आसमान में चांदी के थाल-सा चमकता चांद। उसे छू लेने की चाहत केवल कल्पना में जागती थी। पर जल्दी ही पता लग गया कि चांद चांदी का थाल नहीं, पृथ्वी का उपग्रह है।
गैलीलियो ने अपनी बनाई दूरबीन की आंख सेे उसे देखा, तो देखकर हैरान रह गया कि चांद तो हमारी पृथ्वी की तरह ही धूल, मिट्टी-पत्थर का बना गोला है। तब विज्ञान कथाकारों की कल्पना ने चांद तक उड़ानें भरीं और वहां के काल्पनिक संसार को किताबों में उतारा। दूसरी ओर, तत्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका, दोनों महाशक्तियों के मन में चांद तक पहुंचने के स्वप्न जाग उठे।
रॉकेट के आविष्कार से उनके चांद छूने के स्वप्न को पंख लग गए। अंतरिक्ष विजय की होड़ शुरू हो गई। शीत युद्ध के दौर में सहसा 4 अक्तूबर, 1957 को तत्कालीन सोवियत संघ ने पृथ्वी की कक्षा में मानव निर्मित प्रथम उपग्रह ‘स्पुतनिक-1’ भेजकर आसमानी दौड़ में अपना वर्चस्व साबित कर दिया। यही नहीं, 3 नवंबर, 1957 को लाइका और इसके बाद 12 अप्रैल,1961 को पहले मानव ‘यूरी गगारिन को अंतरिक्ष में भेज दिया। इन तीन उड़ानों ने दोनों महाशक्तियों के बीच अंतरिक्ष की दौड़ को और कठिन होड़ में बदल दिया।
जहां तक चांद की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग, यानी धीरे से सुरक्षित उतरने की बात है, तो पहली बार सोवियत संघ ने 1965 में लूना-5 और लूना-8 से इसका परीक्षण किया और फिर 31 जनवरी, 1966 को पहली बार लूना-9 अंतरिक्ष यान ने सफलता के साथ चांद की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग की।
उधर, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने 25 मई, 1961 को अमेरिकी संसद में घोषणा की कि इस दशक के बीतने से पहले राष्ट्र को चंद्रमा पर मानव उतारने और उसे सकुशल पृथ्वी पर लाने के लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प करना होगा। उनकी इस घोषणा ने अमेरिकी अंतरिक्ष वैज्ञानिकों में नया उत्साह भर दिया।
अमेरिका ने अपने चंद्र अभियान में पहले चांद की ओर अपने पायनियर और रेंजर अंतरिक्ष यान भेजे, लेकिन शुरुआती कोशिशों में वे चांद से टकरा गए। इसके बाद 1964-65 में रेंजर-7, रेंजर-8 और रेंजर-9 अंतरिक्ष यान चांद की सतह से टकराए। फिर लूनर आर्बिटर शृंखला के पांच अंतरिक्ष यान भेज गए। वे भी चांद के फोटो भेजकर उसकी सतह से टकरा गए।
इसके बाद नए, तिकोने आकार में बने सात सर्वेयर अंतरिक्ष यानों की शृंखला भेजी गई। उनमें तीन टांगें थीं और धक्का सहने के लिए शॉक एब्जॉर्वर लगे थे। ये लैंडर यान थे और चांद की सतह पर उतरने के ही उद्देश्य से बनाए गए थे, ताकि वे वहां उतरकर मिट्टी-पत्थरों, तापमान आदि की जांच कर सकें। उनमें से पांच सर्वेयर यान चांद की सतह पर उतरेे भी और उन्होंने हजारों फोटो भेजने के साथ ही मिट्टी का विश्लेषण भी किया।
इसके साथ ही चांद पर मानव को उतारने की कोशिश शुरू कर दी गई। अमेरिका ने उसी बीच महाशक्तिशाली सैटर्न-5 रॉकेट का विकास कर लिया। मानव को चांद की सतह पर उतारने के लिए ‘लूनर मॉड्यूल’ बनाया गया, जो चांद की सतह पर उतरे और वापस कक्षा में आर्बिटर यान से आ मिले। उस लूनर मॉड्यूल को चंद्रगाड़ी भी कहा गया।
दरअसल, जब सोवियत संघ का लूना अभियान सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा था, तभी चांद पर इंसान को भेजने के लिए अमेरिका ने अपनी महत्वाकांक्षी अपोलो परियोजना शुरू कर दी। लूना-13 यान 21 दिसंबर, 1966 को चांद की ओर भेजा गया। उसने सतह पर उतरकर अपने दो मशीनी हाथों से जमीन में ड्रिल करके मिट्टी निकाली और उसकी जांच की।
लूना-16 यान चांद की सतह से 101 ग्राम मिट्टी-पत्थर के नमूने लेकर लौटा। उसके बाद लूना-17 में लैंडिंग यान के साथ एक चांदगाड़ी ‘लूनोखोद-1’ भी भेजी गई, जिसने सतह पर घूम-घूमकर बीस हजार से अधिक चित्र भेजे। लूना-21 में ‘लूनोखोद-2’ चंद्रगाड़ी भेजी गई, जो चांद की सतह पर चार माह तक घूमती रही।
अमेरिका ने अपोलो प्रोजेक्ट में अपोलो-7 अंतरिक्ष यान से मानव समेत उड़ान की शुरुआत की। उसके बाद 21 दिसंबर, 1968 को अपोलो-8 चांद की ओर रवाना हुुआ और उसके 10 चक्कर लगाकर वापस लौट आया। अपोलो-11 अंतरिक्ष यान 16 जुलाई, 1969 को रवाना हुआ। उसने अंतरिक्ष यात्रा में इतिहास रच दिया। इसके कमांडर नील आर्मस्ट्रांग थे और उनके अन्य दो साथी थे बज ए्ड्रिरन तथा माइकल कोलिंस। 20 जुलाई, 1969 को नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर पहला कदम रखा।
चांद तक पहुंचने की यह बढ़ती बेसब्री अब वैज्ञानिकों को ही नहीं, राजनीतिज्ञों को भी चौंकाने लगी है। आखिर रूखे-सूखे चांद में रखा क्या है? कूटनीतिज्ञों के विचार में, रूखी-सूखी ही सही, मगर जमीन तो है, जहां इंसान अपनी बस्तियां बनाकर बस सकता है।
जमीन के अलावा चांद पर खनिजों का खजाना भी है। जािहर है, उसके लिए कल कई देश दावेदारी पेश करेंगे। अमेरिका तो अपनी विकसित प्रौद्योगिकी के बल पर चांद को दूसरे ग्रहों तक यान भेजने का अड्डा बनाने के मनसूबे पाल रहा है। चांद के अड्डे से उसके लिए मंगल तक पहुंचना और आसान हो जाएगा।
कल बाकी देश भी चांद को मंगल तथा अन्य ग्रहों तक पहुंचने का अड्डा बनाने की कोशिश करेंगे। आशा है, चांद पर उतरने की हमारी अपनी कोशिश भी जल्दी ही पूरी हो जाएगी। जहां विकसित देश कई असफल कोशिशों के बाद चांद की सतह पर अपने अंतरिक्ष यान उतारने में सफल हुए हैं, वहीं हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे लैंडर यान को चांद से 2.1 किलोमीटर ऊपर तक पहुंचाने में पहली ही बार में अपूर्व सफलता प्राप्त की है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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