गरीब जनता, अमीर नेता

जनता के प्रतिनिधित्व का कोई सीधा अर्थशास्त्र नहीं होता। यह कतई जरूरी नहीं है कि गरीब जनता का प्रतिनिधि भी उसी आर्थिक हैसियत का हो। इस सोच का कोई तार्किक आधार नहीं है कि सार सर्वस्व त्यागी जब लोकसभा में जुटेंगे तभी देश की गरीब आबादी की समृद्धि का रास्ता खुलेगा।
गरीबी के संदर्भ में ही देखें तो हमारी सोच यही हो सकती है कि हमें ऐसे जनप्रतिनिधि चाहिए, जो ऐसी नीतियां और रणनीति रच सकें कि लोग बदहाली से उबर आएं। इसके लिए जरूरी है कि जनप्रतिनिधि ज्ञान और कौशल के धनी हों, फिर चाहे उनकी माली हालत जसी भी हो। दिक्कत तब आती है, जब हम देखते हैं कि विभिन्न दलों के जितने भी गंभीर किस्म के उम्मीदवार हैं, वे करोड़पति हैं।
यानी अनकही तौर पर पूर देश में ऐसी मान्यता है कि अगर आप करोड़पति नहीं हैं तो आपसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि आप चुनाव लड़ने के लिए जरूरी संसाधन जुटा सकेंगे। इस मामले में अधिकतम खर्च की चुनाव आयोग की सीमा जमीनी सचाई के मद्देनजर काफी हद तक निर्थक है। पोस्टर, पर्चे, रैली और कार्यकर्ताओं पर होने वाला खर्च ही इससे कई गुना अधिक होता है। कुछ इसी खर्च के दबाव और कुछ नेताओं के निजी लोभ ने राजनीति के मायने बदल दिए हैं। और आम राय बन चली है कि राजनीति अब सम्मानजनक पेशे के बजाए, मोटा मुनाफा कमाने वाला व्यवसाय बन गया है।
खुद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वीकार किया था कि अगर ऊपर से एक रुपया जनता के लिए चलता है तो नीचे आम आदमी तक सिर्फ 15 पैसा ही पहुंच पाता है। इसमें से कितने पैसे राजनीति में लगे लोगों तक पहुंचता है और कितना सहयोगी अफसरों की जेब में जाता होगा, इसे समझने के लिए किसी स्टिंग ऑपरशन की जरूरत नहीं है।
बढ़ते भ्रष्टाचार के अलावा परशानी यह भी है कि लोकतंत्र किसी को भी राजनीति में आगे बढ़ने और लोगों की रहनुमाई का अधिकार देता है, लेकिन पैसे का खेल बन गई राजनीति उन लोगों को आगे बढ़ने से रोकती है, जिन पर लक्ष्मी की कृपा नहीं हुई। चुनाव आयोग के प्रावधानों की मजबूरी के चलते उम्मीदवार अपनी संपत्ति का जो ब्योरा पेश कर रहे हैं, वह सिर्फ उनके सफेद धन का ही है। असली संपत्ति तो इससे कई गुना ज्यादा हो सकती है। पर जब सफेद धन के ये हलफनामे ही दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर रहे हों तो बाकी का आलम तो पता नहीं क्या होगा?
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