ग़रीबी का असर इंसान के दिमाग़ पर ?
क्या ग़रीबी की वजह से इंसान का दिमाग़ पूरी तरह से विकसित नहीं होता? क्या ग़रीबी में पलने वाले बच्चों का दिमाग़ कमज़ोर रह जाता है?
असल में रूथ अलेक्जेंडर को एक स्कूल टीचर मिसेज़ मर्फ़ी ने बताया कि ग़रीबी में पलने वाले बच्चे इम्तिहान में फिसड्डी रह जा रहे हैं वहीं खाते-पीते घरों के बच्चे बाज़ी मार ले जाते हैं.
मिसेज मर्फी को लगता है कि गरीब बच्चों के खराब प्रदर्शन का सीधा ताल्लुक़ उनके माहौल से है. वो गुरबत में पल रहे हैं. या शायद ये आनुवांशिक मामला है.
इसके बाद रूथ एलेक्ज़ेंडर ने ये पता लगाने की कोशिश शुरू की कि क्या गरीबी हमारी सोच पर असर डालती है? क्या गरीबी का दिमाग़ के विकास पर असर पड़ता है? इस सिलसिले में रूथ ने कई जानकारों से बात की. इनमें से पहले हैं एल्डर शफ़ीर.
एल्डर शफीर अमरीका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में बर्ताव का विज्ञान और जननीति के विषय पढ़ाते हैं. उन्होंने स्कार्सिटी (Scarcity) नाम से एक क़िताब भी लिखी है. इस किताब में उन्होंने पैसे और वक्त की कमी के इंसान की ज़िंदगी पर असर के बारे में लिखा है.
शफ़ीर मानते हैं कि पैसे की कमी यानी गरीबी हमारी सोच को कमजोर करती है. गरीबी की वजह से हमारे सोचने-समझने की ताक़त कमज़ोर होती है.
कम होते हैं संसाधन
शफ़ीर कहते हैं कि अगर आप किसी को सात नंबर बताएं और उनसे कहें कि इसी क्रम में याद रखें और बाद में बताएं, तो लोगों को इसमें भी दिक़्क़त होती है. आप इनका क्रम भूल जाएंगे. शफ़ीर कहते हैं कि अगर लोग ग़रीबी में रहते हैं. उनके पास कम संसाधन होते हैं.
तो लोग अक्सर दुनियावी उलझनों में ही फंसे रहते हैं. मसलन बच्चों की फ़ीस कैसे भरनी है? घर का ख़र्च कैसे चलाना है? बीमारी की सूरत में इलाज के लिए पैसे कहां से आएंगे? त्यौहार कैसे मनाएंगे? लगातार इन सवालों में उलझे रहने वाले लोग दूसरी ज़्यादा अक़्लमंदी की बातें नहीं सोच पाते.
एल्डर शफ़ीर कहते हैं कि अगर दिमाग़ दुनियावी बातों में उलझा रहता है, तो बाक़ी चीज़ें सोच ही नहीं पाता.
शफ़ीर ने हाल ही में एक शॉपिंग मॉल में एक तजुर्बा किया. उन्होंने कुछ लोगों को एक कार के ख़राब होने का क़िस्सा बताया. साथ ही उन्हें कहा कि उनके पास डेढ़ सौ डॉलर हैं. इसमें ही वो गाड़ी कैसे ठीक कराएंगे? कुछ लोगों को उन्होंने कार ठीक कराने के लिए डेढ़ हज़ार डॉलर ख़र्च करने का विकल्प दिया.
इस तजुर्बे के नतीजे चौंकाने वाले थे. कार की पेचीदा से पेचीदा ख़राबी को ठीक करने के बारे में उन लोगों ने सही सोचा, जिन्हें शफ़ीर ने डेढ़ हज़ार डॉलर ख़र्च करने की आज़ादी दी थी. वहीं जिन्हें सिर्फ़ डेढ़ सौ डॉलर ख़र्च करने की आज़ादी थी, वो मामले को निपटाने के लिए सिर नोचते नज़र आए. शफ़ीर मानते हैं कि इसकी सीधी वजह वो रक़म थी.
अगर आपकी जेब में ज़्यादा पैसे हैं. तो, आप तमाम मुश्किलों का हल आसानी से निकाल सकते हैं. वरना आपका दिमाग़ उलझा ही रहेगा. शफ़ीर के मुताबिक़ सिर्फ़ पैसे की वजह से लोगों के आईक्यू में 12-13 प्वाइंट का फ़र्क़ देखा गया.
सोचने के तरीक़े पर असर
हालांकि शफ़ीर अभी भी पक्के तौर पर ये नहीं कह पा रहे थे कि ग़रीबी का हमारे सोचने के तरीक़े पर असर पड़ता है.
उन्होंने एक और तजुर्बा किया. शफ़ीर की टीम चेन्नई के पास के कुछ गन्ना किसानों से मिली. इस टीम ने पाया कि गन्ने की फ़सल कटने के बाद के दो महीनों में किसान ज़्यादा ख़ुश रहते हैं. वो मुश्किलों का हल चुटकियों में निकाल लेते हैं. वहीं फ़सल कटने के पहले के दो महीनों में वो परेशान दिखते हैं. हर चुनौती उन्हें बड़ी नज़र आती है.
शफ़ीर का मानना है कि फ़सल कटने के बाद किसान धनी होते हैं. उनकी जेब में पैसे होते हैं. उनमें आत्मविश्वास होता है. इसका सीधा असर उनके चुनौतियों का सामना करने की ताक़त पर पड़ता. वहीं फ़सल तैयार होने से पहले के दो महीने किसानों के लिए मुश्किल भरे होते हैं. इसलिए वो बाकी चीज़ों के फ़िक्र में ही फंसे रहते हैं. नई चुनौतियों का हल नहीं सोच पाते. फ़सल कटने और उससे पहले के वक़्त में किसानों के आईक्यू लेवल में 9 प्वाइंट तक का फ़र्क़ आया था.
इन नतीजों से साफ़ है कि ग़रीबी की वजह से थोड़े वक़्त के लिए आपके सोचने-समझने की ताक़त पर असर पड़ता है. मगर अगर कोई ज़्यादा वक़्त तक ग़रीबी में रहे तो क्या होता है?
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए रूथ ने बात की अदीना ज़ेकी अल हज़ूरी से. हज़ूरी अमरीका की मयामी यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. हज़ूरी इस बात की पड़ताल कर रही हैं कि उम्र बढ़ने के साथ दिमाग़ पर कैसा असर होता है? उन्होंने हाल के दिनों में उन लोगों के साथ काफ़ी वक़्त बिताया है जो 1985 में 18 से 30 के बीच की उम्र के थे. ऐसे लोगों की ज़िंदगी पर तब से ही नज़र रखी जा रही थी.
अदीना हज़ूरी ने पाया कि जो लोग लंबे वक़्त तक अभाव में जिए हैं, उनका दिमाग़ उतनी अच्छी तरह से काम नहीं कर पा रहा था, जितना बेहतर ज़िंदगी जीने वाले लोगों का.
मगर इस खोज से एक नया सवाल खड़ा हो गया. क्या दिमाग़ के कम विकसित होने से लोग ग़रीबी में जीने को मजबूर हुए? या फिर ग़रीबी के चलते दिमाग़ ठीक काम नहीं कर पा रहा?
हज़ूरी ने पाया कि ग़रीबी का हमारे सोचने के तरीक़े पर असर पड़ता है. जो लोग लंबा वक़्त ग़रीबी में बिताते हैं, वो अपने दिमाग़ का बख़ूबी इस्तेमाल नहीं कर पाते.
दिमाग़ का विकास नहीं:
तो क्या ऐसे लोग इसीलिए ग़रीब रह गए क्योंकि उनका बचपन ग़रीबी में बीता था? इसी वजह से बचपन में उनका दिमाग़ ठीक से विकसित नहीं हुआ?
क्या ग़रीबी में पलने वाले बच्चों का दिमाग़ पूरी तरह से विकसित नहीं होता?
इस सवाल का जवाब तलाश रही हैं, केटी मैक्लॉक्लिन. केटी अमरीका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. वो रोमानिया के अनाथालय में पल रहे बच्चों पर रिसर्च कर रही हैं. केटी कहती हैं कि दिमाग़ का सबसे ज़्यादा विकास बचपन में ही होता है. इसीलिए वो बच्चों पर रिसर्च कर रही हैं.
रोमानिया के अनाथालयों की हालत बेहद ख़राब है. बच्चे ख़ुरदरी बंज़र दीवारो के बीच क़ैद से हैं. उनके पास खिलौने भी कम हैं. ऐसे माहौल में तो बच्चों का दिमाग़ कम ही विकसित होगा. लेकिन केटी कहती हैं कि बेहद अभाव में पलने वाले दूसरे बच्चों की भी उन्होंने पड़ताल की है.
उन्होंने पाया है कि अगर अनाथालय में रह रहे बच्चों को अमीरों ने गोद ले लिया है. या उन्हें बेहतर जगह भेज दिया गया. उनकी अच्छी परवरिश हुई, तो, ऐसे बच्चों का दिमाग़ आम बच्चों जैसा ही पूरी तरह से विकसित हुआ. उनका आईक्यू लेवल ज़्यादा अच्छा देखा गया।
लेकिन जो बच्चे लगातार ग़ुरबत में पलते रहे, उनका दिमाग़ पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ. साफ़ है कि परवरिश के माहौल का बच्चों पर गहरा असर पड़ा था.
केटी मैक्लॉक्लिन कहती हैं कि गरीबी में पलने वाले बच्चों के दिमाग़ के अहम हिस्सों को सही स्टिमुलेशन नहीं मिलता. उनकी तंत्रिकाएं सूख जाती हैं. ख़ास तौर से दिमाग़ का वो हिस्सा जो ज़बान को समझता है. अगर लंबे वक़्त तक ऐसा होता है तो हमारे दिमाग़ का सबसे अहम हिस्सा कॉर्टेक्स भी कमज़ोर होता जाता है.
बेहतर परवरिश की अहमियत:
ऐसा केटी को सिर्फ़ रोमानिया के अनाथालय के बच्चों में देखने को नहीं मिला. अमरीका में भी ग़रीबी में पल रहे बच्चों का दिमाग़ भी ऐसे ही सूखता हुआ सा देखा गया. बचपन में जिन बच्चों से ज़्यादा बात करने वाले लोग नहीं थे. जिनके पास खिलौने कम थे. जिन्हें खेलने का मौक़ा कम मिला, उनके दिमाग़ की कई तंत्रिकाएं सूख गईं. उनका आईक्यू लेवल कम रह गया.
बच्चों के दिमाग़ का विकास उम्र के दूसरे साल से बड़ी तेज़ी से होता है. उस वक़्त से ही उसकी परवरिश पर ध्यान देने की ज़रूरत है. तभी उसका दिमाग़ ठीक से विकसित होगा. वरना अक़्ल की रेस में बच्चा पीछे रह जाएगा.
ऐसे बच्चे आगे चलकर मुश्किल ज़िंदगी जीते हैं. वो तरक़्क़ी नहीं कर पाते.
साफ़ है कि अब तक जितने तजुर्बे हुए हैं उनसे ये तो पता चलता है कि ग़रीबी का इंसान के दिमाग़ पर असर पडता है. हम ठीक से सोच नहीं पाते. दिमाग़ वक़्त से पहले बूढ़ा हो जाता है. बचपन में ग़रीबी की वजह से ठीक से विकसित नहीं होता.
लेकिन इन तजुर्बों से ये पक्के तौर पर नहीं साबित होता कि ग़रीबी की वजह से दिमाग़ के काम करने के तरीक़े पर असर पड़ता है.
ग़रीबी और दिमाग़ की ताक़त के बीच की इसी कड़ी को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, चार्ल्स नेल्सन. नेल्सन अमरीका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पेडियाट्रिक्स यानी बच्चों के विज्ञान और न्यूरोसाइंस के प्रोफ़ेसर हैं.
नेल्सन इन दिनों बांग्लादेश के स्लम में रहने वाले बच्चों पर एक रिसर्च कर रहे हैं. वो रोमानिया के अनाथालयो में हुए तजुर्बे में भी शामिल रहे थे.
नेल्सन मानते हैं कि ग़रीबी का दिमाग़ पर असर होता है. उसके काम करने के तरीक़े पर ग़रीबी का असर पड़ता है. लेकिन दोनों के बीच कितना गहरा नाता है, ये अभी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता.
सवाल ये है कि क्या पैसे की कमी के चलते दिमाग़ ठीक से विकसित नहीं हो पाता? क्या पैसे की कमी हमारी सोच को बदलती है? नेल्सन मानते हैं कि पैसे की कमी से लोग अच्छा खाना नहीं जुटा पाते. उनकी सेहत पर इसका असर पड़ता है. ग़रीब घरों के लोग ज़्यादा तनाव का सामना करते हैं. इस माहौल का बच्चों पर सीधा असर पड़ता है.
इतना घबराने की ज़रूरत नहीं:-
नेल्सन कहते हैं कि ग़रीब घरों में भी अगर बच्चों की परवरिश पर ध्यान दिया जाता है, तो उनका दिमाग़ ठीक से विकसित होता है. उन बच्चों के दिमाग़ की नसें नहीं सूखतीं. नेल्सन के मुताबिक़ ग़रीबी की वजह से जो माहौल बनता है, दरअसल वो माहौल हमारी सोच पर असर डालता है.अगर आप इन नतीजों से घबरा गए हैं, तो इतना भी घबराने की ज़रूरत नहीं.
चार्ल्स नेल्सन मानते हैं कि इंसान का दिमाग़ लचीला होता है. अगर किसी वजह से हम मुश्किल दौर से गुज़रे. हमारे ज़हन का ठीक से विकास नहीं हुआ. तो, आगे चलकर, हम परवरिश और रहन-सहन को बदलकर दिमाग़ को विकास के सही रास्ते पर ला सकते हैं. हां, इसके लिए काफ़ी मेहनत करनी होगी. ज़्यादा संसाधन लगाने होगे. और ये काम भी जवानी में ही मुमकिन है. बढ़ती उम्र के साथ ये उम्मीद कम होती जाएगी.
ग़रीबी के दिमाग़ के काम पर असर का रिसर्च अभी ज़्यादा पुराना नहीं. अभी इस बारे में काफ़ी काम किया जाना बाक़ी है.
पर हम सब ग़रीबी के असर से वाकिफ़ हैं. इससे रहन-सहन ख़राब होता है. पढ़ाई का, परवरिश का अच्छा माहौल नहीं मिलता. ऐसे में अगर वैज्ञानिक रिसर्च से ये पता चल रहा है कि इससे ज़हन का ठीक से विकास नहीं हो पाता, तो ये अच्छी बात है. हम ज़रूरी क़दम उठा सकते हैं.
केटी मैक्लॉक्लिन मानती हैं कि इस रिसर्च से साफ़ है कि हमें सामाजिक न्याय, लोगों के बीच बराबरी के लिए और ज़्यादा काम करने की ज़रूरत है. हर नागरिक को बराबरी का मौक़ा दिलाने की मुहिम शुरू होनी चाहिए. हम अपने नेताओं से मांग कर सकते हैं कि वो पढ़ाई, खान-पान और तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी संसाधन सबको मुहैया कराएं.
भुखमरी के शिकार बच्चों की तस्वीरों के ज़रिए आवाज़ उठाई जा सकती है कि अगर इन्हें सही माहौल और संसाधन नहीं दिया गया, तो ये कमअक़्ल रह जाएंगे. समाज पर बोझ बनेंगे. ज़रूरी है कि सरकारें इस दिशा में काम करें. ग़रीबी मिटाने के लिए नई तेज़ी और नए जोश के साथ अभियान छेड़े जाएं.
तो हमारा सवाल था कि क्या ग़रीबी हमारे सोचने के तरीक़े पर असर डालती है?
इसका जवाब है, हां. पैसे की फिक्र से हमारा आईक्यू लेवल कम रह जाता है. ग़रीबी की वजह से बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं हो पाती. उन्हें तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी संसाधन नहीं मिलते. इसकी वजह से ग़रीबी में पलने वाले बच्चे, ज़िंदगी की जद्दोजहद में भी पिछड़ते जाते हैं.
इस बारे में हर अमीर-ग़रीब को सोचना होगा.