चवन्नी की भी अपनी कहानी है;जानिए

एक जमाना था जब दादा-दादी से चवन्नी मिल जाने पर बच्चे खुशी से उछल पड़ते लेकिन आज चवन्नी तो क्या अठन्नी की भी कोई पूछ नहीं रही. रिजर्व बैंक ने चवन्नी को बंद करने का फैसला किया है और अब यह इतिहास बनकर रह गयी है.
रिजर्व बैंक के आदेश के अनुसार 30 जून 2011 से पच्चीस पैसे का सिक्का यानी चवन्नी की वैद्यता समाप्त हो जायेगी. बढ़ती महंगाई के इस दौर में रुपये की कीमत घटने से छोटे सिक्के पहले ही चलन से बाहर हो चुके हैं. अब तो अठन्नी भी बाजार में नहीं दिखाई देती है, और एक रूपए का सिक्का भी गायब होने की कगार पर पहुंच चुका है, चवन्नी तो पहले ही चलन से बाहर हो चुकी है. पांच, दस और बीस पैसे के सिक्के तो गुजरे जमाने की बात हो चुके हैं.
पाई, अधेला और दुअन्नी, एक पैसा, दो पैसे, पांच पैसे, दस पैसे और 20 पैसे के बाद अब चवन्नी भी आज से इतिहास में समा गयी. चवन्नी धातु का एक सिक्का मात्र नहीं थी बल्कि हमारे इतिहास का एक ऐसा गवाह भी थी जिसने वक्त के न जाने कितने उतार चढ़ाव देखे.
सन् 1919, 1920 और 1921 में जार्ज पंचम के समय खास चवन्नी बनायी गयी थी. इसका स्वरूप पारंपरिक गोल न रखते हुए अष्ट भुजाकार रखा गया था. यह चवन्नी निकल धातु से तैयार हुई थी लेकिन यह खास आकार लोगों को लुभा नहीं पाया. इतिहासकारों की मानें तो यह पहली ऐसी चवन्नी थी जिसका आकार गोल नहीं था.
इतिहासकार बताते हैं कि मशीन से बनी चवन्नी पहली बार 1835 में चलन में आयी. उसे ईस्ट इंडिया कंपनी के विलियम चतुर्थ के नाम पर जारी किया गया था. तब यह चांदी की हुआ करती थी. पुराने सिक्कों के संग्रह का शौक रखने वाले 67 वर्षीय बुजुर्ग श्रीभगवान ने बताया कि 1940 तक आयी चवन्नियां पूरी तरह चांदी की रहीं लेकिन इसके बाद मिलावट का दौर शुरू हुआ और 1942 से 1945 के बीच आधी चांदी की चवन्नी बाजार में उतारी गयी. लेकिन उसके बाद 1946 से निकल की चवन्नी चलन में आयी. निकल की चवन्नी के एक तरफ जार्ज षष्टम और दूसरी ओर इंडियन टाइगर का चित्र बना हुआ था.
गौरतलब है कि भारत में सिक्के का जन्म ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी के दौरान हुआ. दरअसल इससे पहले व्यापार के लिए कोई मुद्रा अस्तित्व में नहीं थी. लोग एक सामान के बदले दूसरा सामान लेते थे यानि वस्तु विनिमय व्यवस्था थी. इसे बार्टर सिस्टम भी कहा जाता था. लेकिन वस्तु विनिमय में आने वाली दिक्कतों को देखते हुए मुद्रा की जरूरत महसूस हुई जिसके निर्धारित मूल्य पर कोई भी चीज खरीदी या बेची जा सके. इस तरह मुद्रा के रूप में सिक्का अस्तित्व में आया.
इतिहास बताता है कि आधुनिक मुद्रा यानी रुपये को शुरू करने का श्रेय शेरशाह सूरी को जाता है. शेरशाह ने 11.4 ग्राम के चांदी के सिक्के की शुरूआत की थी जिसे चांदी का रुपी भी कहा गया. दरअसल चांदी के संस्कृत अर्थ रुप से रुपया शब्द सामने आया. मुगल साम्राज्य ने भी शेरशाह द्वारा शुरू तंत्र को ही आगे बढ़ाया. मुगल बादशाहों में जहांगीर को सिक्कों से खास लगाव था. बादशाह जहांगीर ने कुछ समय के लिए राशि चक्रीय सोने और चांदी के सिक्के चलाए. यही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा 12 किलोग्राम का सोने का सिक्का भी इसी दौरान बना.
रिजर्व बैंक सूत्रों ने बताया कि 31 मार्च 2010 तक बाजार में पचास पैसे से कम मूल्य वाले कुल 54 अरब 73 करोड़ 80 लाख सिक्के प्रचलन में थे, जिनकी कुल कीमत 1,455 करोड़ रुपये मूल्य के बराबर हैं. यह बाजार में प्रचलित कुल सिक्कों का 54 फीसद तक है.
हालांकि, मुद्रास्फीति की बढ़ती दर के कारण बाजार में 25 पैसे का सिक्का प्रचलन में काफी समय पहले से ही बंद है और आमतौर पर दुकानदार अथवा ग्राहक लेन-देन में इसका प्रयोग नहीं करते हैं.
जानकार सूत्रों के अनुसार 25 पैसे के सिक्के के धातु मूल्य की लागत ज्यादा पड़ती है. अर्थशास्त्र की भाषा में इसे सिक्के की ढलाई का नकारात्मक होना कहा जाता है. शुरुआत में इसका मूल्य उसकी लागत से अधिक होता था. धातु और अंकित मूल्य के बीच का यह अंतर ही सरकार का फायदा होता है, लेकिन अंकित मूल्य कम और धातु मूल्य अधिक होने से यह नुकसानदायक हो जाता है.
उल्लेखनीय है कि सिक्के बनाने में मुख्य रूप से तांबा, निकल, जस्ता और स्टैनलैस स्टील का इस्तेमाल किया जाता है. वैश्विक बाजार में इन प्रमुख धातुओं की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण अधिकतर देश कम मूल्य वाले सिक्के बनाने से कतराने लगे हैं.
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