जब भारत के आखिरी मुगल बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने तड़पाया…ऐसे हुआ था निधन
Posted by – Ashok Kumar Verma
हिंदुस्तान के आखरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जिक्र आते ही उनकी उर्दू शायरी और हिंदुस्तान से उनकी मोहब्बत की भी बात होती है. 21 सितंबर के दिन को अंग्रेज हुक्मरान के हाथों उनकी गिरफ्तारी के लिए इतिहास में दर्ज किया गया है. कहने को तो वह 1837 में बादशाह बनाए गए, लेकिन तब तक देश के काफी बड़े इलाके पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था.
1857 में क्रांति की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उन्होंने भी अंग्रेजों को खदेड़ने का आह्वान किया, लेकिन 82 बरस के बूढ़े बहादुर शाह जफर की अगुवाई में लड़ी गई यह लड़ाई कुछ ही दिन चली और आज के दिन अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन पर मुक़दमा चलाया गया और उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली.
बादशाह बहादुर शाह का जन्म 24 अक्टूबर, 1775 को हुआ था. कहा जाता है कि बहादुर शाह जफर को नाममाज्ञ बादशाह की उपाधि दी गई थी. 1837 के सितंबर में पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद वह गद्दीनशीं हुए. अकबर शाह द्वितीय कवि हृदय जफर को सदियों से चला आ रहा मुगलों का शासन नहीं सौंपना चाहते थे. सौंदर्यानुरागी बहादुर शाह जफर का शासनकाल आते-आते वैसे भी दिल्ली सल्तनत के पास राज करने के लिए सिर्फ दिल्ली यानी शाहजहांबाद ही बचा रह गया था.
1857 के विद्रोह ने जफर को बनाया आजादी का सिपाही:-
1857 में ब्रिटिशों ने तकरीबन पूरे भारत पर कब्जा जमा लिया था. ब्रिटिशों के आक्रमण से तिलमिलाए विद्रोही सैनिक और राजा-महाराजाओं को एक केंद्रीय नेतृत्व की जरूरत थी, जो उन्हें बहादुर शाह जफर में दिखा. बहादुर शाह जफर ने भी ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ाई में नेतृत्व स्वीकार कर लिया. लेकिन 82 वर्ष के बूढ़े शाह जफर अंततः जंग हार गए और अपने जीवन के आखिरी वर्ष उन्हें अंग्रेजों की कैद में गुजारने पड़े.
आला दर्जे के शायर थे बहादुर शाह जफर:-
तबीयत से कवि हृदय बहादुर शाह जफर शेरो-शायरी के मुरीद थे और उनके दरबार के दो शीर्ष शायर मोहम्मद गालिब और जौक आज भी शायरों के लिए आदर्श हैं. जफर खुद बेहतरीन शायर थे. दर्द में डूबे उनके शेरों में मानव जीवन की गहरी सच्चाइयां और भावनाओं की दुनिया बसती थी. रंगून में अंग्रेजों की कैद में रहते हुए भी उन्होंने ढेरों गजलें लिखीं. बतौर कैदी उन्हें कलम तक नहीं दी गई थी, लेकिन सूफी संत की उपाधि वाले बादशाह जफर ने जली हुई तीलियों से दीवार पर गजलें लिखीं.
चुपचाप किए गए थे दफन….
बर्मा में अंग्रेजों की कैद में ही 7 नवंबर, 1862 को सुबह बहादुर शाह जफर की मौत हो गई. उन्हें उसी दिन जेल के पास ही श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया. इतना ही नहीं उनकी कब्र के चारों ओर बांस की बाड़ लगा दी गई और कब्र को पत्तों से ढंक दिया गया. ब्रिटिश चार दशक से हिंदुस्तान पर राज करने वाले मुगलों के आखिरी बादशाह के अंतिम संस्कार को ज्यादा ताम-झाम नहीं देना चाहते थे. वैसे भी बर्मा के मुस्लिमों के लिए यह किसी बादशाह की मौत नहीं बल्कि एक आम मौत भर थी.
उस समय जफर के अंतिम संस्कार की देखरेख कर रहे ब्रिटिश अधिकारी डेविस ने भी लिखा है कि जफर को दफनाते वक्त कोई 100 लोग वहां मौजूद थे और यह वैसी ही भीड़ थी, जैसे घुड़दौड़ देखने वाली या सदर बाजार घूमने वाली. जफर की मौत के 132 साल बाद साल 1991 में एक स्मारक कक्ष की आधारशिला रखने के लिए की गई खुदाई के दौरान एक भूमिगत कब्र का पता चला. 3.5 फुट की गहराई में बादशाह जफर की निशानी और अवशेष मिले, जिसकी जांच के बाद यह पुष्टि हुई की वह जफर की ही हैं.
आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की मौत 1862 में 87 साल की उम्र में बर्मा (अब म्यांमार) की तत्कालीन राजधानी रंगून (अब यांगून) की एक जेल में हुई थी, लेकिन उनकी दरगाह 132 साल बाद 1994 में बनी. इस दरगाह की एक-एक ईंट में आखिरी बादशाह की जिंदगी के इतिहास की महक आती है. इस दरगाह में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रार्थना करने की जगह बनी है. ब्रिटिश शासन में दिल्ली की गद्दी पर बैठे बहादुर शाह जफर नाममात्र के बादशाह थे.
60 साल की सुल्ताना बेगम भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर की पौत्रवधू हैं. अपनी शाही विरासत के बावजूद वो मामूली पेंशन पर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगी रहती हैं. उनके पति राजकुमार मिर्जा बेदर बख्त की साल 1980 में मौत हो गई थी और तब से वो गरीबों की जिंदगी जी रही हैं. वो हावड़ा की एक झुग्गी-छोपड़ी में रह रही हैं. यही नहीं उन्हें अपने पड़ोसियों के साथ किचन साझा करनी पड़ती है और बाहर के नल से पानी भरना पड़ता है.
आपको बता दें, आज वह हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके प्रति सम्मान का अंदाजा इसी बाद से लगा सकते हैं कि आज देश में कई सड़कों का नाम ”बहादुर शाह जफर” रोड से है. वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम से एक सड़क का नाम रखा गया है. बांग्लादेश में विक्टोरिया पार्क का नाम बदल कर ”बहादुर शाह जफर” नाम रख दिया गया है.
पीएम मोदी ने बहादुर शाह जफर की मजार पर चढ़ाए फूल:-
पीएम मोदी म्यांमार की यात्रा के दौरान बहादुर शाह जफर की मजार पर गए, पीएम ने मजार पर फूल चढ़ाने के साथ इत्र भी छिड़का है। इससे पहले वे यांगून में शावेदगांव पगोडा और कालीबाड़ी मंदिर की में पहुंचकर पूजा की थी।
बता दें कि म्यांमार की यात्रा करने वाले लोग भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की दरगाह अधिकतर जाते हैं। भारत के पूर्व पीएम मनमोहन सिंह साल 2012 में म्यांमार यात्रा के दौरान बहादुर शाह जफर की दरगाह पर गए थे।
मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 में हुआ था। उनके पिता अकबर शाह द्वितीय और मां लालबाई थीं। अकबर शाह की मृत्यु की बाद दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी।
इसके बाद जफर को 18 सितंबर, 1837 में मुगल सल्तनत का बादशाह बनाया गया। सौंदर्यानुरागी बहादुर शाह जफर का शासनकाल आते-आते वैसे भी दिल्ली सल्तनत के पास राज करने के लिए सिर्फ दिल्ली यानी शाहजहांबाद ही बचा रह गया था।
आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की मौत 7 नवंबर 1862 में बर्मा ‘अब म्यांमार’ की तत्कालीन राजधानी रंगून ‘अब यांगून’ की एक जेल में हुई थी। लेकिन उनकी दरगाह 132 साल बाद 1994 में बनी।
ब्रिटिश चार दशक से हिंदुस्तान पर राज करने वाले मुगलों के आखिरी बादशाह के अंतिम संस्कार को ज्यादा ताम-झाम नहीं देना चाहते थे। वैसे भी बर्मा के मुस्लिमों के लिए यह किसी बादशाह की मौत नहीं बल्कि एक आम मौत भर थी। उस समय जफर के अंतिम संस्कार की देखरेख कर रहे ब्रिटिश अधिकारी डेविस ने भी लिखा है कि जफर को दफनाते वक्त कोई 100 लोग वहां मौजूद थे और यह वैसी ही भीड़ थी, जैसे घुड़दौड़ देखने वाली या सदर बाजार घूमने वाली।
बहादुर शाह को रंगून में शावेदगांव पगोडा के नजदीक दफनाया गया। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है। आज भी कोई देशप्रेमी व्यक्ति जब तत्कालीन बर्मा ‘म्यंमार’ की यात्रा करता है तो वह जफर की दरगाह पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देना नहीं भूलता। इस दरगाह की एक-एक ईंट में आखिरी बादशाह की जिंदगी के इतिहास की महक आती है।
लोगों के दिल में उनके लिए कितना सम्मान था उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में कई जगह सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है। वहीं बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया गया है।
बता दें कि जफर की दरगाह में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रार्थना करने की जगह बनी है। ब्रिटिश शासन में दिल्ली की गद्दी पर बैठे बहादुर शाह जफर नाममात्र के बादशाह थे।
बहादुर शाह जफर सिर्फ एक देशभक्त मुगल बादशाह ही नहीं बल्कि उर्दू के मशहूर कवि भी थे। उनकी कितनी ही नज्मों पर फिल्मी गाने बने। उनकी दरगाह दुनिया की मशहूर और एतिहासिक दरगाहों में गिनी जाती है।
1857 के विद्रोह ने जफर को बनाया आजादी की सिपाही:-
1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजा दी। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय सैनिकों की बगावत को देख बहादुर शाह जफर का भी गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला।
भारतीयों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों को कड़ी शिकस्त दी। लेकिन 82 वर्ष के बूढ़े शाह जफर अंततः जंग हार गए और अपने जीवन के आखिरी वर्ष उन्हें अंग्रेजों की कैद में गुजारने पड़े। बहादुर शाह जफर की गिरफ्तारी मुगल साम्राज्य के अंत के रूप में सामने आई। 400 साल से भी ज्यादा का चला मुगल साम्राज्य अब खत्म हो चुका था।
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