बच्चों के प्रति हमारी जिम्मेदारियां;

अभिभावकों की जिम्मेदारी, कर्तव्य, समझ और उनकी सोच की व्यापकता बढ़ गई है। यह कहना अनुचित न होगा कि आज का अभिभावक अपने अभिभावकों से अधिक चिंतित, दुखी नज़र आता है। वह अधिक शिक्षित, डिग्री युक्त और अर्थ संपन्न, होने पर भी अपने बच्चों के प्रति अधिक संवेदनशील दिखलाई पडता है। क्या कारण है कि आज एक-दो बच्चों का पालन-पोषण उनकी परवरिश करने में माता-पिता अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं? परन्तु असंतोष का भाव चेहरे पर बना रहता है। जबकि उनके माता-पिता ने उनके ऊपर इसकी 25% मेहनत भी नहीं की होगी। ना जाने कैसे खाते- पीते, मौज करते वे शिक्षित और संस्कारी बन गए। हमें अपने अभिभावकों की इच्छाओं को ढोना नहीं पडा, ना ही कभी अंकों की दौड में भागना पडा। सीमित मर्यादित परिवेश में पलकर सभ्य हो गए।
आज जब भौतिक सुख-सुविधाओं का अंबार लगा हुआ है। कार्य करने के 24 घंटे भी कम पड गए हैं। ऐसे वातावरण में हम धन-दौलत के पीछे भागकर केवल सुविधाओं की उपलब्धि बच्चों को देना चाहते हैं। बच्चों की चाहत जिद्द को तत्काल पूरा करने में अपनी शेखी समझते हैं। उनकी नज़र में सबसे अच्छे पापा बनना चाहते हैं। बच्चों को सुख देना अच्छी बात है। लेकिन समय पर उपलब्ध कराने और उस वस्तु की उपयोगिता का बोध कराने पर ही बच्चों को उसका महत्व पता चलता है। अनायास सब कुछ उपलब्ध होने पर बच्चों को उसकी उपयोगिता का आभास नहीं होता और माता-पिता द्वारा किए गये कर्तव्यों को वे अपना अधिकार समझने लगते हैं। यदि आप अपने बच्चों को पैसा नहीं देगें तो वह थोडी देर के लिए नाराजगी जतायेगा, बिगड जायेगा, मुँह फुलायेगा, खाना नहीं खायेगा। आपने अगर समय नहीं दिया तो हमेशा के लिए ही बिगड जायेगा। उन्हें समय दें, केवल नौकरों के सहारे नहीं छोडें। कितने आश्चर्य की बात है कि हम अपना पर्स दस मिनट के लिए भी नौकरों के पास नहीं छोडते हैं, लेकिन दो-चार वर्ष के बच्चों को पूरे दिन के लिए छोड़ देते हैं।
आज के अभिभावक बच्चों की मासूमियत उनके बचपन को खत्म करने का कार्य करने में लगे हुए हैं। हर अभिभावक अपने बच्चों को चाँद हाथ में देना चाहता है। उसे हर कार्य में प्रथम लाना चाहता है। सबसे अधिक अंक, सदैव प्रथम की रेलमपेल ने बच्चों को कुंठा और तनाव से भर दिया है। बच्चे अपनी रूचि, इच्छा का कार्य नहीं कर सकते। वे आपकी मर्जी का खेल खेलें, आपके मनभावन विषयों को पढ़े। आप अर्थशास्त्र के क्षतिपूर्ति के सिद्धांत को बच्चों पर लागू करें। आप जीवन में जो न बन पायें वह संतान को बनाने में उनकी इच्छाओं की मौत करने में नहीं चूकते। विचार किया जाए तो बच्चों को समाज में उनकी इच्छा, क्षमता और योग्यता को देखकर कार्य करने देना चाहिए। प्रायः समाचार-पत्रों में यह खबर आती है कि अमुख विद्यालय के छात्र ने कम अंक आने के कारण या पढ़ाई के दबाव में आत्महत्या कर ली। बच्चों को स्वतंत्रता देनी चाहिए, वे अपनी इच्छा से कार्य करें। लेकिन स्वतंत्रता के साथ ही अनुशासन में रहने की नसीहत भी देनी चाहिए। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन में एक साक्षात्कार में कहा था कि बाबू जी का स्पष्ट आदेश था कि स्ट्रीट लाइट के जलने से पहले घर आओं। आज की संतान लेट नाइट पार्टी, मौज-मस्ती में रात के 12 से 01 बचे तक घर पहुँचते हैं। किस हालत में, कैसे आते हैं? यह देखना भी अभिभावकों का कर्तव्य है। इसीलिए अभी हाल ही में मोदी जी ने मंच से कहा आज अभिभावको को लड़कों से भी पूछना चाहिए कहाँ रहता है?, किसके साथ रहता है, क्या लिखता पढ़ता है।
आज माता-पिता के समक्ष बच्चों के केवल पालन-पोषण की जिम्मेदारी नहीं अपितु एक सच्चे मित्र, अच्छे शिक्षक, अच्छे अभिभावक और सच्चे नागरिक के रूप में आने की आवश्यकता है। बच्चों का संसार उनके अभिभावकों से शुरू होता है। वे उनके प्रथम शिक्षक होते हैं। बच्चे घर से ही जीवन का पहला पाठ पढ़ते हैं। अगर हमारा परिवेश घर का वातरवरण स्वस्थ होगा तो बच्चों को अच्छे संस्कार मिलेंगे। माता-पिता का मधुर संबंध बच्चों में समरसता घोलता है। बच्चों में प्रसन्नता, उल्लास, उमंग, जोश लाता है। पति-पत्नी का तनाव भरा जीवन बच्चों में तनाव या उपेक्षा का भाव लाता है। एक हाथ की पाँच अँगुलियाँ एक बराबर नहीं होती है तो एक माता-पिता के दो पुत्र एक जैसे कैसे हो सकते हैं। घर में बच्चों की तुलना एक दूसरे से कभी नहीं करनी चाहिए, ना ही कभी अन्य बच्चों से। तुलना का भाव बढ़ने की अपेक्षा उपेक्षा से ग्रस्त करता है।
अभिभावकों को सच्चे मित्र के समान बच्चे के समक्ष होना चाहिए। जिस प्रकार हम मित्र से अपनी सब बात सहज रूप से कर लेते हैं। उसी प्रकार माता-पिता के समक्ष बच्चों अपनी समस्या, अपनी खुशी, अपनी बात रख सकें। बच्चे के जीवन में भय का भाव खुलेपन को समाप्त करता है। वह हर बात छिपाना शुरू करके अंदर ही अंदर घुटना शुरू हो जाता है, फिर उसे समझ पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है।
बच्चों को अभिभावक हिटलर न लगे अपितु दोस्त नज़र आये। एक अच्छे अभिभावक को अच्छा शिक्षक भी बनना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। अब जमाना बदल गया है, जब माता-पिता विद्यालय में नाम लिखाकर इतिश्री समझा करते थे। बच्चे स्वयं या विद्यालय में पढ़कर शिक्षित बन जाते थे। वर्तमान समय में अभिभावकों को अब घर में स्वयं पढ़ाने का कार्य करना पडता है, जो खुद नहीं पढ़ा उसे भी बच्चों की खातिर पढ़ना पडता है। यह कोई बुरी बात नहीं है, अपितु बच्चों के साथ बैठने पर हम उसकी रूचि, योग्यता समर्थता को समझ पाते हैं। बच्चों के साथ समय व्यतीत करने से निकटता, खुलापन और बच्चे भी गतिविधियों का पता चलता है। आज जब दुनिया भर की बुरी घटनाएँ समाज में उभर कर आ रही है। तो ऐसे में बच्चों के भटकाव और उन्हें भ्रमित होने से बचाने के लिए अभिभावक को सजग-मार्ग दर्शक के रूप में भूमिका निभानी चाहिए।
अच्छे अभिभावक को शब्द ज्ञान देने के लिए प्रेरित करना चाहिए अर्थात् वे शिक्षित हो, अच्छी बात है। इससे भी अधिक सुशिक्षित हो यह बात अनिवार्य है। वे अच्छे संस्कारों से युक्त हो। उनमें मानवीय मूल्यों को समझने की समझ हो। बच्चों को अच्छे अंक, अच्छी नौकरी से बढ़कर अच्छी संतान, अच्छा नागरिक बनाना ही हम भूलते जा रहे हैं।
फिल्म तारे ज़मीन पर और थ्री इडियट ने अभिभावकों को नई दृष्टि दी है। जीवन में ईमानदारी, भाईचारा, बंधुत्व की भावना ही हमें ऊँचाइयों पर ले जाती है। एक नजरिये से देखा जाए तो संसार के जितने भी महापुरूष हुए हैं वे कभी अंकों में प्रथम नहीं आए। यही बात खिलाड़ियों, अभिनेताओं, राजनेताओं और सफल अभिभावकों पर भी लागू होती है।