लॉकडाउन ने लम्बी खींची बेरोज़गारी, अनौपचारिक क्षेत्र में बढ़ोतरी

नई दिल्ली|अनौपचारिक क्षेत्र के कामगार अभी भी वैश्विक महामारी कोविड-19 के गहरे दुष्प्रभावों को झेल रहे हैं, जबकि राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को खत्म हुए महीनों बीत गए हैं। अधिक से अधिक कामगार लॉकडाउन खत्म होने के बाद दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं, तो नियमित कामगारों की तादाद में भी भारी गिरावट आई है। देश में अनौपचारिक कामगारों के हालात को लेकर हाल ही में किये गये एक सर्वे में यह खुलासा हुआ है।
अनौपचारिक कामगारों पर यह राष्ट्रीय सर्वेक्षण, एक्शन एड एसोसिएशन ने किया है, जो सामाजिक और पर्यावरण न्याय के लिए काम करता है। एक्शन एड देश के 24 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में अनेक सहयोगियों और अनुषंगी संगठनों के साथ मिलकर काम करता है। यह उसका दूसरे चरण का सर्वे है जो देश के 23 राज्यों के 400 जिलों में काम करने वाले 16,900 से ज्यादा कामगारों के बीच किया गया है। यह सर्वेक्षण तीसरे और चौथे चरण के अनलॉक के समय में 23 अगस्त से 8 सितंबर 2020 के दौरान किया गया है।
पहले से ही तनावपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए, महामारी के प्रकोप से पूर्व अनलॉक के दौरान की प्रक्रिया और उसके बाद के राष्ट्रीय लॉकडाउन के कारण होने वाली क्षति की सीमा अधिक हो गई है। रिपोर्ट के अनुसार “पर्याप्त सरकारी समर्थन तथा सुरक्षित आजीविका के अभाव में लोग बुरी तरह कर्ज पर निर्भर हो रहे हैं, परिवारों और मित्रों से आर्थिक मदद न मिलने के कारण वे साहूकारों के चंगुल में फंस रहे हैं। ये लोग अपनी जीविका के लिए ज्यादा से ज्यादा जोखिम भरे क्षेत्रों की तरफ बढ़ रहे हैं। कई रिपोर्टों में बाल मजदूरी बढ़ने की घटनाओं की तस्दीक भी की गई है।”
एक्शन एड के सर्वे में पाया गया कि कुल 16,961 प्रतिभागियों में से लगभग आधे लोग बेरोजगार थे, और एक चौथाई लोग शून्य मजदूरी पर काम कर रहे थे। इन प्रतिभागियों में से 42 फ़ीसदी ने कहा कि वे लॉकडाउन के दौरान ही बेरोजगार हो गए थे। तब एक्शन एड के पहले राउंड का सर्वे, पिछले साल मई में हुआ था और सितंबर महीने में दूसरे राउंड का सर्वे किया गया था, तब तक ये लोग बेरोजगार ही थे। रोजगार वापसी की प्रक्रिया, खासकर शहरी क्षेत्रों में, उम्मीद के विपरीत बहुत ही धीमी है। जबकि औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही क्षेत्रों में, मजदूरी में तेजी से भारी गिरावट आई है।
यहाँ तक कि जिन लोगों के पास रोजगार थे, उनमें से ज्यादातर लॉकडाउन लागू होने के पहले की तुलना में कुछ ही घंटे काम कर पा रहे थे या उन्हें कभी-कभार ही काम मिल रहा था। इस वजह से इनमें से बहुतों को रोजगार के अन्य वैकल्पिक स्रोत भी तलाश करने पड़ी हैं, जिनमें भवन-निर्माण और विनिर्माण से मुख्यत: खेती का आश्रय लिया गया है।
सर्वे के निष्कर्षों में यह बात प्रमुखता से उभर कर आई है कि इस दौरान लोग नियमित कामगार से दिहाड़ी मजदूर बन गये हैं। दिहाड़ी मजदूरों की जीविका की सुरक्षा बेहद कम हैं। सर्वे में भाग लेने वाले प्रतिभागियों में से 60 फीसदी दिहाड़ी मजदूर थे और 22.5 फ़ीसदी ही नियमित थे। जबकि 71 फीसदी नियमित मजदूर रोजाना 8 घंटे काम कर रहे थे, जिसमें उन्हें आधे घंटे का विश्राम भी दिया जाता था, यह सुविधा भी केवल 50 फ़ीसदी दिहाड़ी मजदूरों को ही हासिल थी; जबकि 34 फ़ीसदी नियमित कामगारों को 24 फ़ीसदी दिहाड़ी मजदूरों की तुलना में कम मजदूरी मिल रही थी।
लॉकडाउन खुलने के बाद भी मजदूरी की दर को गलत तरीके से कम रखा गया है। सर्वे के प्रतिभागी कामगारों में से लगभग आधे लोग महीने में 5,000 से भी कम कमा रहे थे। इन प्रतिभागियों में से केवल 8 फीसदी ही 10 हजार रुपये प्रति महीना कमा रहे थे।
एक्शन एड की रिपोर्ट में कहा गया है, “मजदूरी के मामले में जेंडर के स्तर पर बड़ा भेदभाव था। एक महिला कामगार खेती, निर्माण कार्य, विनिर्माण कार्य, साफ सफाई के काम, फेरी के काम, होटल-रेस्टोरेंट्स के काम और मछली से जुड़े कार्य सहित सभी तरह के बड़े काम-धंधों, में पुरुष की औसत मजदूरी की तुलना में काफी कम मजदूरी पा रही थी।”
सर्वे में यह रेखांकित किया गया है कि यहां तक कि गारमेंट उद्योग, जहां पुरुषों के मुकाबले महिला कामगार अधिक हैं, वहां भी महिलाएं अपने सहयोगी पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी पा रही थीं। रिपोर्ट में कहा गया है, “यह संभवतः महिलाओं को कम मजदूरी वाले कामों से जुड़े जाने की वजह से पुरुषों की तुलना में उन्हें कम मजदूरी दी जा रही थी। वहीं, जो पुरुष हमारे इस सर्वेक्षण में शामिल हुए, उनमें बहुत कम ही घरेलू काम-धंधे और साल्ट पैन जैसे कम आय वाले रोजगारों से जुड़े थे, जहां 60 से 80 फ़ीसदी कामगार प्रति महीने 5,000 रुपये से भी कम कमा पाते थे।”
सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट को जारी करने के अवसर पर एक्शन एड के कार्यकारी निदेशक संदीप चाचरा ने कहा: “पूरे देश के अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों के हालात को जानने के लिए एक्शन एड एसोसिएशन ने यह सर्वे किया है। इसके आधार पर हमें यह समझने की आवश्यकता है कि कोविड-19 से पैदा हुए हालात और इससे रोजगार के क्षेत्र में बढ़ी असुरक्षा के मद्देनजर अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वालों और इस पर आश्रित लोगों के लिए क्या उपयुक्त कदम उठाए जाने चाहिए। हम उम्मीद करते हैं कि अनेक ट्रेड यूनियनों, वर्कर्स कलेक्टिव्स और सिविल सोसाइटी नेटवर्क से मिली सूचनाओं के आधार पर इस रिपोर्ट में जो सुझाव दिये गए हैं, उन पर तत्काल कदम उठाए जाएंगे और अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों की आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाएगा।”
भारत के आम जनमानस के लिए, इतिहास में वर्ष 2020 को आजीविका कमाने और आय के मामले में सबसे खराब वर्ष के रूप दर्ज़ किया जाएगा। बेरोजगारी का स्तर काफी भयंकर स्तर पर पहुँच गया है, आय में कमी और अभाव इस हद पहुँच गया था कि हजारों परिवार भुखमरी के कगार पर पहुंच गए थे। दुख की बात है कि इसका नतीजा केवल महामारी नहीं थी। अचानक लॉकडाउन, आम जनता को आय सहायता प्रदान करने में विफलता, सरकार की सार्वजनिक खर्च पर लगाम लगाने की जिद और कॉर्पोरेट घरानों की डूबती अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने की वजह से था। लेकिन, सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि बुरे दिन अभी भी खत्म नहीं हुए हैं।
सरकारी प्रचार के बुलबुले के असर में रहने वालों के लिए, भारत की विनाशकारी अर्थव्यवस्था “वी-आकार की रिकवरी” से गुजरने वाली है। वे हर जगह “हरी टहनी” के लहराने यानि अर्थव्यवस्था की रिकवरी के सुखद एहसास की ढपली बजाते नज़र आ रहे हैं। कॉर्पोरेट धनाडय तबके के संकट को संबोधित करते हुए, प्रधानमंत्री मोदी प्रसन्न दिखाई दिए कि जैसे अर्थव्यवस्था अपेक्षा से अधिक तेजी से ठीक हो रही थी। इसके लिए बेहतर जीएसटी संग्रह, माल ढुलाई और बंदरगाह यातायात में वृद्धि, और सबसे मोहक- रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंचने वाले शेयर बाजार की गाथा को पानी पी-पी कर सुनाया जा रहा हैं।
जबकि वास्तविक दुनिया में, चीजें इसके काफी उलट हैं। किसी भी आर्थिक संकट के हल की सबसे बड़ी शर्त या महत्वपूर्ण उपाय है रोजगार होता है। कितने लोग काम पर हैं? बेरोजगारी दर कितनी है? और, आबादी का कौन सा हिस्सा काम कर रहा है? इन सब बातों पर ध्यान न देने से हालात चिंताजनक नज़र आते हैं।
नीचे दिए चार्ट में सीएमआईई डेटा के आधार पर दिसंबर 2018 से शुरू होने वाले पिछले दो वर्षों की मासिक बेरोजगारी दर को दर्शाता है। मार्च 2020 तक यानि लॉकडाउन तक, बेरोजगारी की दर 7-8 प्रतिशत के इर्द-गिर्द मँडरा रही थी, जो एक तरह से बहुत खुशहाल स्थिति नहीं थी। फिर लॉकडाउन का विनाशकारी झटका आया जिसने देश की विशाल अर्थव्यवस्था को प्रभावी रूप से बंद कर दिया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इससे बेरोजगारी की दर बढ़ गई- जोकि अप्रैल माह में लगभग 24 प्रतिशत हो गई थी और इस वर्ष मई में आते-आते लगभग 22 प्रतिशत रह गई थी। जैस-जैसे आर्थिक गतिविधि धीरे-धीरे शुरू हुई, लोग अपने अस्थाई काम पर वापस चले गए और उन्हे जो भी कमाई की दर मिली उस पर काम करने लगे थे। इससे बेरोजगारी की दर में गिरावट आई, हालांकि इसने अर्थव्यवस्था को बहुत बेहतर नहीं किया क्योंकि आय अभी भी पहले की तुलना में बहुत कम थी।
लेकिन अब, निम्नलिखित महीनों पर नज़र डालें- जुलाई के से बाद, दिसंबर तक।
खरीफ की कटाई समाप्त होते ही और रबी की बुवाई की तैयारी से पहले अक्टूबर में एक छोटी सी उठापटक हुई और नवंबर में बेरोजगारी की दर में 6.5 प्रतिशत तक गिरावट आ गई थी। इसने सरकार समर्थक अर्थशास्त्रियों और टीवी शो विशेषज्ञों के बीच बहुत उत्साह पैदा किया, जिन्होंने लगे हाथ इस बात की घोषणा कर दी कि अब सबसे बुरा वक़्त बीत गया। लेकिन, दिसंबर से सीएमआईई के सबसे नए और साप्ताहिक आंकड़ों से पता चलता है कि 27 दिसंबर तक बेरोजगारी की दर 9 प्रतिशत से भी अधिक थी। वास्तव में, ऐसा लगता है कि लॉकडाउन के बाद की अवधि में बेरोजगारी 8-9 प्रतिशत के नए ‘सामान्य’ स्तर पर ठहर गई थी। यह तथ्य ‘रिकवरी’ के बारे में सत्तारूढ़ समर्थकों की सभी हसरतों की धज्जी उड़ा देता है।
रोज़गार में ठहराव
अब, इस संकट के दूसरे पहलू को देखें जो दूर जाने से इनकार कर रहा है- जो वास्तव में काम कर रहे हैं। सीएमआईई सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर पिछले दो वर्षों के रुझान नीचे दिए गए चार्ट में दिखाए गए है। आपके जहन जो सबसे पहली बात आएगी कि- दिसंबर 2018 में कम करने वाले व्यक्तियों की संख्या लगभग 39.7 करोड़ थी, और यह संख्या नवंबर 2020 में 39.4 करोड़ थी। इस पर लॉकडाउन का प्रभाव स्पष्ट रूप देखा जा सकता है क्योंकि अप्रैल में यह संख्या 31.4 करोड़ रोजगार से मई में केवल 28.2 करोड़ तक रह गई थी। लेकिन इसके बाद यह उसी स्थान पर वापस आ गई थी।
इसका मतलब क्या है? यानि हर दिन जनसंख्या बढ़ रही है, और अनुमान है कि हर साल लगभग 12 करोड़ लोग कामकाजी उम्र की आबादी में प्रवेश कर जाते हैं। ये सभी नौकरियों की तलाश में नहीं रहते हैं। कुछ अभी भी पढ़ रहे हैं, महिलाओं को आमतौर पर जल्दी शादी करने के लिए कहा जाता है आदि। औसत काम में सहभागिता की दर- आबादी का वह हिस्सा जो काम करने को तैयार है- लॉकडाउन से पहले लगभग 42 प्रतिशत हुआ करता था। इसका मतलब है कि हर साल लगभग पांच करोड़ लोग नौकरी तलाशने वालों की सेना में शामिल हो जाते हैं। फिर भी, दो वर्षों में, काम करने वाले व्यक्तियों की संख्या समान रहती है। इससे यह बात स्पष्ट होता है कि लोग या तो बेरोजगारों की विशाल सेना में शामिल हो रहे हैं, या पराजित और हतोत्साहित हैं, वे घर बैठे हैं, कुछ समय में एक बार नौकरी करते हैं, कुछ खेती में या अन्य लोग ऐसे परिवार के काम में मदद करते हैं।
वास्तव में, काम में सहभागिता की दर स्पष्ट रूप से नज़र आती है। जो दिसंबर 2018 में 42.5 प्रतिशत से घटकर नवंबर 2020 में लगभग 40 प्रतिशत हो गई थी।
मोदी सरकार द्वारा बढ़ाया हुआ संकट
देश के महामारी की चपेट में आने से पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था नाजुक तो थी लेकिन संकट की चपेट में भी थी। आर्थिक विकास धीमा हो गया था, बेरोजगारी बढ़ रही थी, उपभोग पर खर्च गिर रहा था- संक्षेप में, लोग अपने जीवन स्तर में गिरावट से काफी पीड़ित थे। इसका असर बढ़ते कुपोषण की चौंकाने वाली सीमा में भी परिलक्षित होता है जैसा कि हाल ही में राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2018-19 के सर्वेक्षण में सामने आया है। मोदी सरकार ने खुद को इस संकट से निपटने में पूरी तरह से असमर्थ पाया, क्योंकि उन्होने अधिकांश कार्यों को निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया, जिनसे अर्थव्यवस्था को चलाने की बड़ी धारणा थी, और सबसे अच्छी उम्मीद भी थी।
लेकिन इस साल आई महामारी, और इसके प्रति सरकार की गलत प्रतिक्रिया और मुक्त बाजार के देवताओं के प्रति निरंतर आज्ञाकारिता ने यह सुनिश्चित कर दिया कि लोगों को एक सुरंग के भीतर धकेल दिया गया है और जिसका कोई अंत नज़र नहीं आता है।
सरकार ने वास्तव में महामारी का इस्तेमाल करके एक खतरनाक दवा का इस्तेमाल करने की कोशिश की, जिसमें तीन कृषि-कानूनों और चार श्रम संहिताओं को लागू किया, जो एक साथ भयंकर बेरोजगारी पैदा करने के साथ आय को कम करेंगे और लोगों को अधिक असुरक्षा प्रदान करेंगे।
दूसरे शब्दों में कहे तो, आज जो विकट स्थिति देखी जा रही है- बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती कीमतें, गिरती आय- यह इस सब के और अधिक बढ़ाने का इशारा है। यह तर्क से परे की बात है कि नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन की सख्त जरूरत है- या फिर इसके लिए इस सरकार को बदलना होगा।