शासन और प्रशासन

ताज़ा मामले में शशिकला को जेल में दी जा रही विशेष सुविधाओं से जुड़े खुलासे के बाद कर्णाटक सरकार ने जिस तरह से डी रूपा का स्थानांतरण किया वह अपने आप में नेताओं की उस मानसिकता को ही दर्शाता है जो हर परिस्थिति में अधिकारियों को दबा कर रखने में ही विश्वास किया करते हैं. कहने के लिए यह सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही आता है पर इसके पीछे कितनी राजनीति छिपी होती है यह सभी जानते हैं. वैसे भी जेल में बंदी नेताओं और उनके समर्थकों को लेकर भारत भर में कानून की लगभग हर समय धज्जियाँ ही उड़ाई जाती रहती हैं पर किसी ईमानदार अधिकारी के चलते कई बार इसका खुलासा भी हो जाता है. परिस्थिति तब और गंभीर और चिंताजनक हो जाती है जब किरण बेदी जैसी अधिकारी भी सुविधा के अनुसार मामलों पर प्रतिक्रिया देने का काम करने लगती हैं. अभी कुछ समय पहले यूपी में कई अधिकारियों और भाजपा नेताओं के बीच भी इसी तरह की ख़बरें आयी थीं तब बेदी ने किसी का भी समर्थन नहीं किया क्योंकि वहां पर उनकी पार्टी की सरकार चल रही है पर कर्णाटक से जुड़ा मामला होने के कारण उन्हें अधिकारी की ईमानदारी दिखाई देने लगी है. भारतीय राजनीति के साथ सामंजस्य बैठाने में जब किरण बेदी जैसी पूर्व पुलिस अधिकारी का यह हाल हो जाता है तो आम अधिकारियों से किसी निष्ठा की आशा कैसे की जा सकती है ?
ऐसे किसी भी मामले से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को कड़े नियम बनाने और उन पर अमल करने के बारे में सोचना ही होगा तभी कुछ सही किया जा सकता है वर्ना हमेशा की तरह कोई अधिकारी खेमका, नागपाल या रुपा की तरह तबादले ही झेलने को अभिशप्त रहने वाला है. राजनैतिक मामलों से जुड़े किसी भी प्रकरण में तबादला आखिरी हथियार होना चाहिए और इस तरह के मामलों में विधायिका के पूरी तरह से फेल हो जाने के कारण न्यायपालिका को इसमें खुला हस्तक्षेप करने की छूट भी होनी चाहिए क्योंकि ये जनहित से जुड़े मुद्दे ही होते हैं. अधिकारियों के समय पूर्व तबादले के लिए विशेष कड़े नियम होने चाहिए और उन पर अमल करना सरकार के लिए बाध्यकारी भी होना चाहिए किसी भी तरह के विवाद के सामने आने पर जिला जज, जिलाधिकारी और राज्य व केंद्र की तरफ से आये हुए प्रतिनिधियों की समिति में ही उनके तबादले पर निर्णय किया जाना चाहिए जिससे ईमानदार अधिकारियों के लिए काम करने लायक माहौल को बनाये रखा जा सके. कहने को नेता यह कह सकते हैं कि इससे सरकार की कार्यक्षमता पर दुष्प्रभाव पड़ेगा और अधिकारी निरंकुश हो जायेंगें पर सोचने की बात तो यह है कि आज ऐसे कितने अधिकारी बचे हैं जो हर तरह की परिस्थिति में केवल कानून के अनुसार चलने की हिम्मत और विश्वास रखते हैं ? अधिकारियों को नेताओं के इस चंगुल से निकालने के लिए किसी न किसी को किसी न किसी स्तर पर प्रयास करना ही होगा जिससे आने वाले समय में प्रशासन और शासन के बीच इस तरह के खेल को बंद किया जा सके और ईमानदार अधिकारी अपना कार्य पूरी क्षमता के साथ कर सकें.
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