संविधान में बराबरी, लेकिन कानून में भेदभाव;
पिछले दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मामलों में महिलाओं के हक में कुछ फैसले दिए हैं। उनको दर्ज करना जरूरी है जानकारी के लिए, ताकि ऐसे दूसरे मामलों में दिशा मिल सके। साथ ही अगर कहीं कमियां हैं, अगर ये स्त्री-पुरुष में संविधान-प्रदत्त समानता के खिलाफ जाते हैं तो उन पर सोच-विचार और बदलाव हो सके।
सबसे ताजा फैसले में , 31 जुलाई को न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और सी के प्रसाद की पीठ ने एक मामले में कहा है कि संतान पैदा न होने की स्थिति में पत्नी को दोष देना और पीड़ित करना गलत है। इस स्थिति में सबसे अच्छा तो यह होगा कि दंपति इलाज कराए और फिर भी बात न बने तो बच्चा गोद ले ले। उन्होंने कहा कि जरूरी नहीं कि संतान के न होने के लिए सिर्फ स्त्री जिम्मेदार है। इसलिए उसे इसका दोषी बताना और इसके लिए प्रताड़ित करना सामंती सोच का परिचायक है।
एक दूसरा मामला 2009 का है, जिसमें कोर्ट को एक कठिन सवाल का सामना करना पड़ा और कानून की रुकावट की वजह से फैसला चाह कर भी स्त्री के हक में नहीं दिया जा सका। 1955 में नारायणी देवी का विवाह दीनदयाल शर्मा से हुआ। तीन महीने में ही जीनदयाल की मृत्यु हो गई। जैसा कि आम तौर पर होता है, ससुराल वालों ने नारायणी को उसके मायके धकेल दिया। यहां उसने काम-काज शुरू किया और अच्छी संपत्ति जुटा ली। उसकी मृत्यु पर उसकी मां ने संपत्ति पर दावा जताया तो नारायणी के पति की बहन का बेटा भी अपना हक जताने मैदान में आ पहुंचा। हिंदू उत्तराधिकार कानून की धारा 15 (1) के तहत किसी स्त्री के मरने पर अगर वसीयत नहीं की गई है तो उसकी संपत्ति का हक पहले उसकी संतान को, संतान की संतान को और फिर पति में बंटता है। अगर इनमें से कोई न हो तो पति के उत्तराधिकारियों का नंबर आता है। उनके बाद कहीं जाकर उस महिला के पिता और माता के उत्तराधिकारियों की बारी आती है।
धारा 15 (2) अ के मुताबिक अगर स्त्री की संतान नहीं है तो उसकी संपत्ति जो उसे माता-पिता से मिली है, वह माता-पिता के उत्तराधिकारियों को और जो पति या ससुराल से उत्तराधिकार में मिली है वह पति के उत्तराधिकारियों में बंटेगी। लेकिन अजीब बात यह है कि दोनों ही स्थितियों में स्त्री की अपनी अर्जित संपत्ति का कहीं कोई जिक्र नहीं है, गुंजाइश नहीं है। यानी माना गया कि स्त्री संपत्ति अर्जित नहीं करती या कर सकती। इसके अलावा हिंदू पुरुष के मरने पर उसकी संपत्ति के मूल को नहीं खोजा जाता। वह संपत्ति का पूरा-पूरा मूल हकदार होता है, चाहे वह कहीं से भी आई हो। लेकिन स्त्री की संपत्ति का मूल कोजा जाना भेदभावपूर्ण है। इसी कारण से नारायणी के मामले में कोर्ट ने कहा कि यह मामला कठिन और पेचीदा है।
हालांकि नारायणी की मां का दावा भावना या संवेदना के बजाए तर्क और समानता, न्याय के सिद्धांतों पर आधारित था। लेकिन कानून इस सहज न्याय के आड़े आ रहा था। आखिर न चाहते हुए भी न्यायाधीश ने फैसला उस भांजे के दावे के हक में दिया, जिसने कभी अपनी मामी से कोई संपर्क नहीं रखा था।
अगर कोई पुरुष बिना वसीयत के अपनी संपत्ति छोड़ जाता है तो उस पुरुष के बच्चों और पत्नी के साथ मां को संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलता है, पर किसी महिला के मरने पर उसकी स्वयं अर्जित संपत्ति पर भी उसके माता-पिता का कोई हक नहीं है। न्याय का तकाज़ा है कि बिना वसीयत की संपत्ति उसके योग्यतम उत्तराधिकारी को मिले, लेकिन कानून ही इसमें रुकावट बनता है। नारायणी के मामले में उसकी मां से ज्यादा योग्य कौन होगा जिसने अपनी बेटी का जीवनपर्यंत ख्याल रखा जबकि उसके कानूनी उत्तराधिकारी का उससे किसी तरह का संपर्क तक नहीं रहा।
संविधान ने देश में स्त्री-पुरुष को बराबर का दर्जा दिया है, पर उसी संविधान के तहत कानून में कई स्तरों पर गैर-बराबरी कायम है। इसके बारे में भी जागरूक होना होगा ताकि बदलाव की बात हो सके।