सवाल उच्च शिक्षा की गुणवत्ता का है..
बीते दिनों राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उच्च शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की बात कही। उन्होंने नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की याद दिलाई, जब भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था सबसे अच्छी थी। आज स्थिति उसके बिल्कुल उलट है। भारत की कोई भी शिक्षण संस्था आज दुनिया की शीर्ष 200 उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में नहीं है। जबकि पूर्वी एशिया के छोटे-छोटे देशों की कई शिक्षण संस्थाएं शीर्ष 50 की सूची में शामिल हैं। जहां तक आर्थिक लाभ और सुविधा की बात है, भारत की स्थिति कई यूरोपीय देशों से बेहतर है। छठे वेतन आयोग के लागू होने के बाद से अध्यापकों का वेतन कई विकसित देशों की तुलना में अधिक है। अब तो केंद्र सरकार ने सातवें वेतन आयोग का गठन भी कर दिया है। फिर भी उच्च शिक्षा का ढांचा मजूबत क्यों नहीं बन पा रहा है?
कभी नालंदा विश्वविद्यालय की दुनिया भर में विशिष्ट पहचान थी। लेकिन बख्तियार खिलजी ने उसे ध्वस्त कर दिया था। अंग्रेजों के कार्यकाल में मैकाले ने बाबूगीरी की परंपरा शुरू की, जिसमें ज्ञान कम और अंग्रेजियत ज्यादा महत्वपूर्ण बन गई। हालांकि स्वतंत्र भारत की करीब सड़सठ वर्षों की यात्रा पर ध्यान केंद्रित करें, तो उच्च शिक्षण व्यवस्था में कई अच्छी बातें भी दिखाई देती हैं। बीती सदी के पचास के दशक में चंद उच्च शिक्षण संस्थान देश के महज ढाई फीसदी लोगों को ही शिक्षित करने की क्षमता रखते थे। आज यह प्रतिशत 18 तक पहुंच गई है। देश में पंद्रह हजार से अधिक महाविद्यालय और साढ़े छह सौ से अधिक विश्वविद्यालय हैं। सरकार वर्ष 2030 तक उच्च शिक्षा में हिस्सेदारी को 18 से बढ़ाकर 30 प्रतिशत तक ले जाना चाहती है। हालांकि तब भी यह कम होगा, क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन में यह प्रतिशत 70 से ऊपर है। चीन में भी उच्च शिक्षा का औसत 35 प्रतिशत से अधिक है।
भारत की समस्या केवल उच्च शिक्षा का कम आंकड़ा ही नहीं है, बल्कि इसकी गुणात्मकता और एकरूपता का भी है। देश के उच्च शिक्षा संस्थान जिस तरह डिग्रियां दे रहे हैं, उनमें कई विसंगतियां हैं। अधिकांश महाविद्यालयों में सुनियोजित शिक्षण व्यवस्था का अभाव है। अनेक कॉलेजों में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। असल में कमजोर और बेतरतीब स्कूल व्यवस्था ही उच्च शिक्षा व्यवस्था की बीमारी का मुख्य कारण है। दरअसल हमारे यहां की प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक, कॉलेज और विश्वविद्यालय की शिक्षा व्यवस्था में ऐसी कोई लकीर नहीं है, जो इन्हें आपस में बांध सके। अगर विद्यालय में ही गुणात्मक शिक्षा का बीजारोपण हो जाए, तो विश्वविद्यालय की स्थिति स्वतः बेहतर हो जाएगी।
आज ज्यादातर विश्वविद्यालय समाज की समस्याओं से न केवल दूर हैं, बल्कि अपनी एक बंद दुनिया में सिमटे हुए हैं। जबकि विश्वविद्यालयों का उद्देश्य विसंगतियों और अंधकार को दूर करना है। कई बार लीक से हटकर काम करने में परंपरागत सोच और कानूनी व्यवस्था आड़े आती है। चंद नामचीन विश्वविद्यालयों को छोड़ दें, तो ज्यादातर नवनिर्मित केंद्रीय विश्वविद्यालय पिछड़े जिलों में बनाए गए है। मकसद अच्छा है, लेकिन सवाल इन्हें बेहतर बनाने की कोशिशों का है। उच्च कोटि के शिक्षकों की बहाली पहला कदम होना चाहिए। कई बार लीक से हटकर बहाली में सरकारी नियमों और अध्यादेशों की बेड़ी पैरों को बांध देती है। अच्छे शिक्षकों की कमी से छात्रों का नामांकन कम होता है।
शिक्षण संस्थाओं में एक नए किस्म की जातिगत श्रेणी बन गई है। सरकारी और गैरसरकारी दान संस्थाओं में चंद विश्वविद्यालयों का सिक्का चलता है। चाहे शोध पर खर्च की बात हो या विदेशों में द्विपक्षीय शिक्षा व्यवस्था में आदान-प्रदान की बात, इन्हीं की तूती बोलती है। बुनियादी ढांचे में बदलाव लाए बगैर शिक्षा व्यवस्था की नींव मजबूत नहीं हो सकती। दुनिया भर में विजय पताका लहराने वाले शोधार्थियों ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि भारत में प्रतिभा की कमी नहीं है। जरूरत एक ऐसी व्यवस्था बनाने की है, जिससे ये प्रतिभाएं यहीं पनपकर दुनिया को नए ज्ञान की रोशनी दे सकें।