Birthday Anniversary: जब हिटलर से मिलने पहुंचे नेता जी तो उसने भेज दिया अपने हमशक्लों को, जानिए फिर क्या हुआ

Subhash Chandra Bose Jayanti: अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को जब-जब याद किया जाएगा एक नाम जरूर सबकी जुबां पर होगी. वह नाम है नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम. वहीं सुभाष चंद्र बोस जिन्होंने ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ का नारा बुलंद किया था. जिन्होंने देशवासियों से कहा था कि याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है. जिन्होंने कहा था कि सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी है. उनकी बातें, उनका संघर्ष और उनकी जिंदगी तीनों आज भी प्रेरणा देती है.
आज ही के दिन क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस का जन्म साल 1897 में हुआ था. उनका जन्म उड़ीसा के कटक शहर में हुआ. सुभाष चंद्र बोस के पिता कटक शहर के जाने-माने वकील थे. बोस को जलियांवाला बाग कांड ने इस कदर विचलित कर दिया कि वह आजादी की लड़ाई में कूद पड़े.
दरअसल सुभाष चंद्र बोस की शुरुआती शिक्षा कलकत्ता के ‘प्रेज़िडेंसी कॉलेज’ और ‘स्कॉटिश चर्च कॉलेज’ से हुई थी. इसके बाद वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए इंग्लैंड गए. 1920 में उन्हें सफलता मिली और उन्होंने ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ की परीक्षा उत्तीर्ण की.
हालांकि आजादी पाने के लिए बेताब अन्य स्वतंत्रता सैनानियों की तरह बोस भी सरकारी नौकरी नहीं करना चाहते थे और इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी नहीं बल्कि देश भक्ति की भावना से प्रेरित अलग काम करने की ठान ली. सुभाष चंद्र बोस ने नौकरी से इस्तीफा देकर सारे देश हो हैरान कर दिया.
बोस सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर जब भारत लौटे तो वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए. हालांकि वो महात्मा गांधी के अहिंसा में विश्वास नहीं करते थे इसलिए वह जोशिले क्रांतिकारियों के दल के प्रिय बन गए. यहां यह बता देना आवश्यक है कि बेशक नेताजी सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के बीच आजादी को पाने के लिए जो रास्ता अपनाना चाहिए उसको लेकर असहमति थी लेकिन दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते थे.
1938 में बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने और राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया. गांधी जी लगातार बोस का विरोध कर रहे थे लेकिन अगले साल फिर 1939 में बोस अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गए. हालांकि इसके बाद महात्मा गांधी के विरोध को देखते हुए बोस ने स्वयं कांग्रेस छोड़ दिया.
इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया. बोस को लगा अगर ब्रिटेन के दुश्मनों से मिला जाए तो उनके साथ मिलकर अग्रेजी हुकूमत से आजादी हासिल की जा सकती है. हालांकि उनके विचारो पर अंग्रेजी हुकूमत को शक था और इसी वजह से ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में उन्हें नजरबंद कर लिया. कुछ दिन बाद वहां से बोस भागने में कामयाब हुए और निकलकर जर्मनी पहुंचे.
वह 1933 से 1936 तक यूरोप में रहे. यह दौर यूरोप में हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फांसीवाद का दौर था. नाजीवाद और फांसीवाद का निशाना इंग्लैड था और इसलिए बोस को दुश्मन का दुश्मन भविष्य का दोस्त नजर आ रहा था. इसी के मद्देनज़र वह हिटलर से भी मिले.
हिटलर हो गया नेताजी का कायल
आजादी दिलाने के प्रयासों के क्रम में नेताजी एक बार हिटलर से मिलने गए. उस वक्त का एक रोचक किस्सा है. दरअसल जब वह हिटलर से मिलने गए तो उन्हें एक कमरे में बिठा दिया गया. उस दौरान दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था और हिटलर की जान को खतरा था. अपने बचाव के लिए हिटलर अपने आस-पास बॉडी डबल रखता था जो बिल्कुल उसी के जैसे लगते थे.
थोड़ी देर बाद नेता जी से मिलने के लिए हिटलर की शक्ल का एक शख्स आया और नेताजी की तरफ हाथ बढ़ाया. नेताजी ने हाथ तो मिला लिया लेकिन मुस्कुराकर बोले- आप हिटलर नहीं हैं मैं उनसे मिलने आया हूं. वह शख्स सकपका गया और वापस चला गया. थोड़ी देर बाद हिटलर जैसा दिखने वाला एक और शख्स नेता जी से मिलने आया. हाथ मिलाने के बाद नेताजी ने उससे भी यही कहा कि वे हिटलर से मिलने आए हैं ना कि उनके बॉडी डबल से.
इसके बाद हिटलर खुद आया, इस बार नेताजी ने असली हिटलर को पहचान लिया और कहा, ” मैं सुभाष हूं… भारत से आया हूं.. आप हाथ मिलाने से पहले कृपया दस्ताने उतार दें क्योंकि मैं मित्रता के बीच में कोई दीवार नहीं चाहता.” नेताजी के आत्मविश्वास को देखकर हिटलर भी उनका कायल हो गया. उसने तुरंत नेताजी से पूछा तुमने मेरे हमशक्लों को कैसे पहचान लिया. नेताजी ने उत्तर दिया- ‘उन दोनों ने अभिवादन के लिए पहले हाथ बढ़ाया जबकि ऐसा मेहमान करते हैं.’ नेताजी की बुद्धिमत्ता से हिटलर प्रभावित हो गया.
सुभाष चंद्र बोस ने भारत के बाहर रहकर देश की आजादी के लिए कई काम किए. इसमें उनके आजाद हिन्द फौज की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।
आजाद हिन्द फौज
इसकी स्थापना 1942 में साउथ ईस्ट एशिया में हुआ था. आईएनए की शुरुआत रास बिहारी बोस और मोहन सिंह ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान की थी. बाद में दोनों के बीच मनमुटाव हो गया. जब बोस जर्मनी में रहते थे तो उसी दौरान जापान में रह रहे आजाद हिंद फौज के संस्थापक रासबिहारी बोस ने उन्हें आमंत्रित किया और 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर में नेताजी को आजाद हिंद फौज की कमान सौंप दी. आजाद हिंद फौज में 85000 सैनिक शामिल थे और कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के नेतृत्व वाली महिला यूनिट भी थी.
इसके बाद नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आज़ाद हिंद की ऐतिहासिक उपलब्धि ही थी कि उसने जापान की मदद से अंडमान निकोबार द्वीप समूह को भारत के पहले स्वाधीन भूभाग के रूप में हासिल कर लिया. इस विजय के साथ ही नेताजी ने राष्ट्रीय आज़ाद बैंक और स्वाधीन भारत के लिए अपनी मुद्रा के निर्माण के आदेश दिए. इंफाल और कोहिमा के मोर्चे पर कई बार भारतीय ब्रिटेश सेना को आज़ाद हिंद फ़ौज ने युद्ध में हराया.
हालांकि साल 1945 में 18 अगस्त के दिन टोक्यो जाते वक्त ताइवान के पास नेताजी का निधन एक हवाई दुर्घटना में हो गया, लेकिन सुभाष चंद्र बोस का शव कभी नहीं मिल पाया और इसी कारण उनकी मौत पर आज भी विवाद बना हुआ है.
सुभाष चंद्र बोस कहा करते थे कि जीवन में अगर संघर्ष न रहे, किसी भी भय का सामना न करना पड़े, तब तक जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है. नेताजी की जिंदगी में संघर्ष भी रहे, हालांकि उन्होंने हर बाधा को पार करते हुए देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
आजादी के आंदोलन में प्रयागराज का विशेष महत्व रहा है। यहां ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई बैठकें और सभाएं हुई हैं। इनमें उस समय के अधिकांश नेता यहां आते थे। 1939 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) आए थे। अपने प्रवास के दौरान वे कई जगहों पर गए थे। उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक के लिए लोगों से समर्थन भी मांगा था। सिविल लाइंस के पीडी पार्क में उन्होंने एक सभा को संबोधित किया था। सभा के बाद छात्रों के आग्रह करने पर वे एंग्लो बंगाली इंटर कालेज भी गए थे।
फारवर्ड ब्लाक के लिए समर्थन जुटाने आए थे नेताजी
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे प्रो.एमसी चट्टोपाध्याय ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रयागराज आने की कई घटनाओं को साझा किया। उन्होंने बताया कि नेताजी उनके पिता प्रो.क्षेत्रेश चंद्र चट्टोपाध्याय के सहपाठी थे। कलकत्ता के प्रेसीडेंसी स्कूल में दोनों ने एक साथ ही पढ़ाई की थी। प्रो.क्षेत्रेश चंद्र चट्टोपाध्याय संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे थे। उनकी विद्वता की ख्याति उस समय पूरे देश में थी। नेताजी ने फारवर्ड ब्लाक के लिए समर्थन जुटाने में तब प्रो.चट्टोपाध्याय का समर्थन मांगा था। इसी सिलसिले में वे 1939 में प्रयागराज आए थे। प्रो.एमसी चट्टोपाध्याय बताते हैं कि फारवर्ड ब्लाक को लेकर सिविल लाइंस के पीडी टंडन पार्क में दोपहर बाद एक सभा आयोजित की गई थी। सभा के दौरान पार्क पूरी तरह से भरा हुआ था। इसमें युवाओं की संख्या ज्यादा थी। प्रयागराज के आसपास के लोग भी इस सभा में नेताजी को सुनने आए थे। पार्क के बाहर भी लोगों की भीड़ जमा थी। नेताजी ने अपने संबोधन में कुछ दिन पहले कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष पद पर हुई जीत का भी जिक्र किया था।
अंधेरे में छात्रों को किया था संबोधित
प्रो.एमसी चट्टोपाध्याय बताते हैं कि सुभाष चंद्र बोस ने जब भाषण समाप्त किया तो पार्क के पीछे ही स्थित एंग्लोबंगाली इंटर कालेज के छात्रों ने उनसे कालेज में चलने का आग्रह किया। कहा कि वे कालेज में भी छात्रों को संबोधित करें। छात्रों के आग्रह पर नेताजी एंग्लो बंगाली इंटर कालेज चले आए। उस समय अंधेरा हो चला था। बोस के आने की खबर पर छात्रों के अलावा और बहुत से लोग वहां पहुंच गए। कालेज पूरी तरह खचाखच भर गया था। अंधेरा होने की वजह से कालेज प्रबंधन और आसपास के लोगों ने लालटेनों का इंतजाम किया। हालांकि लालटेन अंधेरा खत्म नहीं कर पाई पर बोस ने हल्की रोशनी में छात्रों को एक घंटे संबोधित किया। इस दौरान छात्र पूरी तरह से शांत होकर उनका भाषण सुनते रहे।